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बैतूल:- मुगल विस्तारवाद के विरुद्ध अंतिम सांस तक लड़ते रहीं रानी दुर्गावती

बलिदान दिवस पर आदिवासी समाज ने वीरांगना को किया नमन

बैतूल:- समस्त आदिवासी समाज संगठन के तत्वावधान में गोंडवाना की वीरांगना रानी दुर्गावती मंडावी का बलिदान दिवस 24 जून को श्रद्धा के साथ मनाया गया। यह कार्यक्रम लाल बहादुर स्टेडियम के सामने स्थित रानी दुर्गावती की प्रतिमा स्थल पर आयोजित हुआ, जहां समाज के वरिष्ठजन, महिलाएं, छात्राएं और युवा बड़ी संख्या में शामिल हुए।
1. कार्यक्रम की शुरुआत समाज के अध्यक्ष सुंदरलाल उइके द्वारा प्रतिमा पर पूजा अर्चना एवं माल्यार्पण से हुई। इसके बाद उपस्थित सभी समाजजनों द्वारा रानी दुर्गावती की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित की गई। कार्यक्रम में सरवन सिंह मरकाम, सोहनलाल धुर्वे, शंकर सिंह आहके, बसंत कवड़े, सुनील सलामे, डॉ. राजा धुर्वे, दुर्गा उइके, गीता उइके, देवेश्वरी मरकाम, पुष्पा मर्सकोले, पुष्पा पेंदाम, राजेश कुमार धुर्वे, जितेंद्र सिंह इवने, अविनाश धुर्वे, अंकित कुमरे, सुनील कवड़े, चिंटू ठाकुर, ईश्वर धुर्वे, मोतीलाल मसराम, राहुल धुर्वे सहित अनेक छात्राएं एवं समाजजन उपस्थित रहे।
2. इस अवसर पर वक्ताओं ने रानी दुर्गावती के शौर्य, आत्मबल और बलिदान की गौरवगाथा को याद किया। देवेश्वरी मरकाम ने कहा कि रानी दुर्गावती गढ़ा राज्य की एक वीर शासिका थीं, जिन्होंने मुगल साम्राज्य के खिलाफ अपने राज्य की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दी। पुष्पा मर्सकोले ने कहा कि रानी दुर्गावती गोंडवाना साम्राज्य की 16वीं सदी की बहादुर रानी थीं, जिनका जन्म 1524 में चंदेल वंश में हुआ था और विवाह गोंड राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपत शाह से हुआ था।
3. पुष्पा पेंदाम ने बताया कि रानी ने 1550 में पति की मृत्यु के बाद गोंडवाना का शासन-भार संभाला और 1564 तक कुशलतापूर्वक राज्य चलाया। सरवन सिंह मरकाम ने कहा कि उन्होंने अकबर के शासनकाल में मुगलों की विस्तारवादी नीति के विरुद्ध अपनी सेना का नेतृत्व करते हुए राज्य की रक्षा की। जिला अध्यक्ष आकास संगठन शंकर सिंह आहके ने बताया कि 1564 में मुगल सेनापति आसफ खान ने गोंडवाना पर हमला किया था, तब रानी दुर्गावती ने वीरता से युद्ध लड़ा लेकिन अंत में जब हार सुनिश्चित दिखी तो उन्होंने आत्मसमर्पण की जगह बलिदान को चुना। सोहनलाल धुर्वे ने कहा कि रानी दुर्गावती का खंजर से आत्मबलिदान आज भी साहस और आत्मगौरव की मिसाल है। कार्यक्रम का समापन समाजजनों द्वारा रानी के बलिदान को नमन करते हुए उनके पदचिह्नों पर चलने के संकल्प के साथ किया गया।

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